NCERT Class 10th Sanskrit Chapter 8 विचित्रः साक्षी

NCERT Class 10th Sanskrit Chapter 8

अष्टमः पाठः

विचित्रः साक्षी (विचित्र गवाह)

पाठ परिचय- प्रस्तुत पाठ श्री ओमप्रकाश ठाकुर द्वारा रचित कथा का सम्पादित अंश है । यह कथा बंगाल के प्रसिद्ध साहित्यकार बंकिमचन्द्र चटर्जी द्वारा न्यायाधीश-रूप में दिये गये फैसले पर आधारित है । सत्यासत्य के निर्णय हेतु न्यायाधीश कभी-कभी ऐसी युक्तियों का प्रयोग करते हैं जिससे साक्ष्य के अभाव में भी न्याय हो सके । इस कथा में भी विद्वान् न्यायाधीश ने ऐसी ही युक्ति का प्रयोग कर न्याय करने में सफलता पाई है ।
पाठ के गद्यांशों के कठिन शब्दार्थ एवं सप्रसंग हिन्दी अनुवाद –

(1)

कश्चन निर्धनो जनः भूरि परिश्रम्य किञ्चिद् वित्तमुपार्जितवान् । तेन स्वपुत्रं एकस्मिन् महाविद्यालये प्रवेशं दापयितुं सफलो जातः । तत्तनयः तत्रैव छात्रावासे निवसन् अध्ययने संलग्नः समभूत् । एकदा स पिता तनूजस्य रुग्णतामाकर्ण्य व्याकुलो जातः पुत्रं द्रष्टुं च प्रस्थितः । परमर्थकार्श्येन पीडित: स बसवानं विहाय पदातिरेव प्राचलत् । पदातिक्रमेण संचलन् सायं समयेऽप्यसौ गन्तव्याद् दूरे आसीत् । निशान्धकारे प्रसृते विजने प्रदेशे पदयात्रा न शुभावहा । एवं विचार्य स पार्श्वस्थिते ग्रामे रात्रिनिवासं कर्त्तुं कञ्चिद् गृहस्थमुपागतः । करुणापरो गृही तस्मै आश्रयं प्रायच्छत् ।

कठिन शब्दार्थ – भूरि = अत्यधिक (पर्याप्तम्) । परिश्रम्य = परिश्रम करके (परिश्रमं कृत्वा) । वित्तम् = धन (धनम्) । उपार्जितवान् = कमाया (अर्जितवान्) । दापयितुम् = दिलाने के लिए (कारयितुम्) । तत्तनयः = उसका पुत्र (तस्य पुत्रः) । निवसन् = रहते हुए (वासं कुर्वन्) । समभूत् = हो गया (अजायत्) । तनूजस्य = पुत्र की (पुत्रस्य) । आकर्ण्य = सुनकर (श्रुत्वा) । प्रस्थितः = चला गया (गतः) । अर्थकार्श्येन = धनाभाव के कारण (धनस्य अभावेन) । विहाय = छोड़कर (त्यक्त्वा) । पदातिरेव = पैदल ही (पादाभ्याम् एव) । प्राचलत् = चल दिया (प्रस्थितः) । संचलन् = चलते हुए (चलन्नेव) । निशान्धकारे = रात्रि के अन्धकार में (रात्रे: तमसि) । प्रसृते = फैलने पर (विस्तृते) । विजनेप्रदेशे = एकान्त प्रदेश में (एकान्तप्रदेशे) । शुभावहा = कल्याणकारी (कल्याणप्रदा) । विचार्य = विचार करके (विचिन्त्य) । गृही = गृहस्थ (गृहस्वामी) । प्रायच्छत् = प्रदान किया (प्राददात्) ।

प्रसंग- प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी द्वितीयो भागः’ के ‘विचित्र: साक्षी’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है । यह पाठ श्री ओमप्रकाश ठाकुर द्वारा रचित कथा का सम्पादित अंश है । इसमें विद्वान् न्यायाधीश द्वारा एक विचित्र युक्ति से सफलतापूर्वक न्याय किये जाने का प्रेरणास्पद वर्णन हुआ है । इस अंश में किसी निर्धन व्यक्ति के अपने बीमार पुत्र से मिलने हेतु पैदल ही जाने का तथा रात्रि को किसी गृहस्थी के घर आश्रय लिये जाने का वर्णन हुआ है ।

हिन्दी अनुवाद- किसी निर्धन व्यक्ति ने अत्यधिक परिश्रम करके कुछ धन कमाया । उससे उसने अपने पुत्र को एक महाविद्यालय में प्रवेश दिलाने में सफलता प्राप्त कर ली । उसका पुत्र वहीं पर छात्रावास में रहकर अध्ययन करने लगा । एक बार वह पिता अपने पुत्र की रुग्णता (बीमारी) को सुनकर व्याकुल हो गया और वह पुत्र को देखने के लिए चल दिया । किन्तु धनाभाव से पीड़ित होने के कारण वह बस यान को छोड़कर पैदल ही चल दिया । पैदल चलते हुए सायंकाल तक भी वह अपने गन्तव्य स्थान से दूर ही था । रात के अन्धकार के फैलने पर एकान्त प्रदेश में पैदल-यात्रा कल्याणकारी नहीं है, ऐसा विचार करके वह पास में ही स्थित गाँव में रात को निवास करने के लिए किसी गृहस्थी के पास गया । करुणायुक्त गृहस्थी ने उसे आश्रय प्रदान कर दिया ।

 (2)

विचित्रा दैवगतिः । तस्यामेव रात्रौ तस्मिन् गृहे कश्चन चौर: गृहाभ्यन्तरं प्रविष्टः । तत्र निहितामेकां मञ्जूषाम् आदाय पलायितः । चौरस्य पादध्वनिना प्रबुद्धोऽतिथिः चौरशङ्कया तमन्वधावत् अगृह्णाच्च, परं विचित्रमघटत । चौरः एव उच्चैः क्रोशितुमारभत “चौरोऽयं चौरोऽयम्” इति । तस्य तारस्वरेण प्रबुद्धाः ग्रामवासिनः स्वगृहाद् निष्क्रम्य तत्रागच्छन् वराकमतिथिमेव च चौरं मत्वाऽभर्त्सयन् । यद्यपि ग्रामस्य आरक्षी एव चौर आसीत् । तत्क्षणमेव रक्षापुरुषः तम् अतिथिं चौरोऽयम् इति प्रख्याप्य कारागृहे प्राक्षिपत् ।

कठिन शब्दार्थ – दैवगतिः = भाग्य की लीला (भाग्यस्थितिः) । गृहाभ्यन्तरम् = घर के अन्दर (भवनस्य मध्ये) । निहिताम् = रखी हुई (स्थापिताम्) । मञ्जूषाम् = सन्दूक को (पेटिकाम्) । आदाय = लेकर (नीत्वा) । पलायितः = भाग गया, चला गया (वेगेन निर्गतः/पलायनम् अकरोत्) । पादध्वनिना = पैरों की आवाज से (चरणपादशब्देन) । प्रबुद्धः = जागा हुआ (जागृतः) । अन्वधावत् = पीछे-पीछे भागा (अन्वगच्छत्) । अगृह्णात् = पकड़ लिया (प्राप्तवान्) । क्रोशितुम् = जोर-जोर से चिल्लाने (चीत्कर्तुम्) । आरभत = आरम्भ किया (आरम्भमकरोत्) । तारस्वरेण = ऊँची आवाज से (उच्चस्वरेण) । निष्क्रिम्य = निकलकर (निर्गत्य) । वराकम् = बेचारा (दीनम्) । अभर्त्सयन् = भला-बुरा कहा (भर्त्सनाम् अकुर्वन्) । आरक्षी = रक्षा करने वाला पुरुष (सैनिक:) । रक्षापुरुषः = सिपाही (रक्षकः, आरक्षी) । प्रख्याप्य = स्थापित करके (स्थाप्य) । कारागृहे = जेल में (बंदीगृहे) । प्राक्षिपत् = डाल दिया (न्यगृह्णीत) ।

प्रसंग- प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी-द्वितीयो भागः’ के ‘विचित्रः साक्षी’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है । यह पाठ श्री ओमप्रकाश ठाकुर द्वारा रचित कथा का सम्पादित अंश है । इसमें विद्वान् न्यायाधीश द्वारा एक विचित्र युक्ति से सफलतापूर्वक न्याय किये जाने का प्रेरणास्पद वर्णन हुआ है । इस अंश में एक विचित्र घटना का वर्णन हुआ है । जिस घर में निर्धन व्यक्ति ठहरा हुआ था, उसी घर में रात को एक चोर आ जाता है तथा वह निर्धन व्यक्ति उसे पकड़ने के लिए उसके पीछे भागने पर, चोर द्वारा ‘चोर, चोर’ चिल्लाने पर रक्षकों के द्वारा निर्धन व्यक्ति को ही चोर मानकर जेल में बन्द कर दिये जाने का वर्णन है ।

हिन्दी अनुवाद – भाग्य की लीला विचित्र है । उसी रात को उस घर में कोई चोर घर के अन्दर घुस गया । वह वहाँ पर रखी हुई एक पेटिका (छोटी सन्दूक) को लेकर चला गया । चोर के पैरों की आवाज से जगा हुआ अतिथि चोर की शंका करता हुआ उसके पीछे-पीछे भागा और उसे पकड़ लिया, किन्तु वहाँ विचित्र घटना घटित हुई । चोर ने ही जोर से चिल्लाना प्रारम्भ कर दिया- “यह चोर है, यह चोर है ।” उसकी ऊँची आवाज से जगे हुए गाँव के लोग अपने घरों से निकलकर वहाँ आ गये और बेचारे अतिथि को ही चोर मानकर उसे भला-बुरा कहा । यद्यपि गाँव की रक्षा करने वाला चौकीदार ही चोर था । उसी समय सिपाही ने उस अतिथि को ही चोर बतलाकर उसे जेल में डाल दिया ।

 (3)

अग्रिमे दिने स आरक्षी चौर्याभियोगे तं न्यायालयं नीतवान् । न्यायाधीशो बंकिमचन्द्रः उभाभ्यां पृथक्-पृथक् विवरणं श्रुतवान् । सर्वं वृत्तमवगत्य स तं निर्दोषम् अमन्यत आरक्षिणं च दोषभाजनम् । किन्तु प्रमाणाभावात् स निर्णेतुं नाशक्नोत् । ततोऽसौ तौ अग्रिमे दिने उपस्थातुम् आदिष्टवान् । अन्येद्युः तौ न्यायालये स्व-स्व-पक्षं पुनः स्थापितवन्तौ । तदैव कश्चिद् तत्रत्यः कर्मचारी समागत्य न्यवेदयत् यत् इतः क्रोशद्वयान्तराले कश्चिज्जनः केनापि हतः । तस्य मृतशरीरं राजमार्गं निकषा वर्तते । आदिश्यतां किं करणीयमिति । न्यायाधीशः आरक्षिणम् अभियुक्तं च तं शवं न्यायालये आनेतुमादिष्टवान् ।

कठिन शब्दार्थ- चौर्याभियोगे = चोरी के आरोप में (चौरकर्मणि चौर्यदोषारोपे) । नीतवान् = ले गया (अनयत्) । उभाभ्याम् = दोनों से (द्वाभ्याम्) । अवगत्य = जानकर (ज्ञात्वा) । आरक्षिणम् = सैनिक को (सैनिकम्) । दोषभाजनम् = अपराधी, दोषी (दोषपात्रम्) । निर्णेतुम् = निर्णय करने में (निर्णयं कर्त्तुम्) । उपस्थातुम् = उपस्थित होने के लिए (उपस्थापयितुम्) । आदिष्टवान् = आदेश दिया (आज्ञां दत्तवान्) । अन्येद्युः = अगले दिन (अपरेऽस्मिन् दिने) । स्थापितवन्तौ = स्थापित किये (स्थापनां कृतवन्तौ) । तत्रत्यः = वहाँ का (तत्र भवः) । समागत्य = आकर (आगत्य) । न्यवेदयत् = निवेदन किया, प्रार्थना की (प्रार्थयत्) । क्रोशद्वयान्तराले = दो कोस के मध्य (द्वयोः क्रोशयोः मध्ये) । हतः = मारा गया है (मारितः) । निकषा = समीप (समीपम्) । आदिश्यताम् = आज्ञा दीजिए (आदेशं दीयताम्) । आनेतुम् = लाने के लिए (आनयनाय) ।

प्रसंग- प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी-द्वितीयो भाग:’ के ‘विचित्रः साक्षी’ शीर्षक पाठ से उद्धृत किया गया है । यह पाठ श्री ओमप्रकाश ठाकुर द्वारा रचित कथा का सम्पादित अंश है । इसमें विद्वान् न्यायाधीश द्वारा एक विचित्र युक्ति से सफलतापूर्वक न्याय किये जाने का प्रेरणास्पद वर्णन हुआ है । इस अंश में न्यायालय का दृश्य चित्रित है, जिसमें न्यायाधीश सम्पूर्ण वृत्तान्त को सुनकर रक्षक पुरुष एवं चोरी के आरोपी अतिथि दोनों को सड़क किनारे पड़े हुए किसी व्यक्ति के शव को लाने का आदेश दिया गया है ।

हिन्दी अनुवाद – अगले दिन वह सिपाही चोरी के आरोप में उसे (अतिथि) को न्यायालय में ले गया । न्यायाधीश बंकिमचन्द्र ने दोनों से अलग-अलग विवरण को सुना । सम्पूर्ण वृत्तान्त जानकर उसने उस अतिथि को निर्दोष माना और रक्षक पुरुष को दोषी । किन्तु प्रमाण के अभाव से वह निर्णय करने में समर्थ नहीं हुआ । उसके बाद दिया उसने उन दोनों को अगले दिन उपस्थित होने के लिए आदे आदेश दिया । अगले दिन उन दोनों ने न्यायालय में अपना-अपना पक्ष पुनः स्थापित किया । उसी समय वहीं के किसी कर्मचारी ने आकर प्रार्थना की कि यहाँ से दो कोस के मध्य किसी व्यक्ति को किसी के द्वारा मार दिया गया है । उसका मृत शरीर सड़क के समीप है । आदेश दीजिए क्या किया जाय । न्यायाधीश ने रक्षक पुरुष (चौकीदार) और अभियुक्त (अतिथि) को उस शव को न्यायालय में लाने का आदेश दिया ।

(4)

आदेशं प्राप्य उभौ प्राचलताम् । तत्रोपेत्य काष्ठपटले निहितं पटाच्छादितं देहं स्कन्धेन वहन्तौ न्यायाधिकरणं प्रति प्रस्थितौ । आरक्षी सुपुष्टदेह आसीत्, अभियुक्तश्च अतीव कृशकायः । भारवतः शवस्य स्कन्धेन वहनं तत्कृते दुष्करम् आसीत् । स भारवेदनया क्रन्दति स्म । तस्य क्रन्दनं निशम्य मुदित आरक्षी तमुवाच- “रे दुष्ट ! तस्मिन् दिने त्वयाऽहं चोरिताया मञ्जूषाया ग्रहणाद् वारितः । इदानीं निजकृत्यस्य फलं भुङ्क्ष्व । अस्मिन् चौर्याभियोगे त्वं वर्षत्रयस्य कारादण्डं लप्स्यसे “इति प्रोच्य उच्चैः अहसत् । यथाकथञ्चिद् उभौ शवमानीय एकस्मिन् चत्वरे स्थापितवन्तौ ।

कठिन शब्दार्थ- प्राप्य = प्राप्त करके (लव्ध्वा) । प्राचलताम् = चल दिये (प्रस्थितौ) । उपेत्य = पास जाकर (समीपं गत्वा) । काष्ठपटले = लकड़ी के तख्ते पर (काष्ठस्य पटले) । निहितम् = रखे हुए को (स्थापितम्) । पटाच्छादितम् = वस्त्र से ढका हुआ (वस्त्रेणावृतम्) । देहम् = शरीर को (शरीरम्) । स्कन्धेन = कन्धे के द्वारा (स्कन्धभागेन) । वहन्तौ = धारण करते हुए, वहन करते हुए (धारयन्तौ) । कृशकायः = कमजोर शरीर वाला (दुर्बलं शरीरम्) । भारवतः = भारवाही (भारवाहिनः) । दुष्करम् = कठिन कार्य (कठिनकार्यम्) । भारवेदनया = भार की पीड़ा से (भारपीडया) । क्रन्दति स्म = रो रहा था (रोदति स्म, अरुदत्) । निशम्य = सुनकर (श्रुत्वा) । मुदितः = प्रसन्न (प्रसन्नः) । उवाच = बोला (अवदत्) । वारितः = रोका गया (निवारितः) । भुङ्क्ष्व = अनुभव करो, भोगों (अनुभवतु) । लप्स्यसे = प्राप्त करोगे (प्राप्स्यसे) । प्रोच्य = कहकर (कथयित्वा) । चत्वरे = चौराहे पर (चतुर्मार्गे/ चतुष्पथे) ।

प्रसंग- प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी-द्वितीयो भागः’ के ‘विचित्रः साक्षी’ शीर्षक पाठ से उद्धृत किया गया है । यह पाठ श्री ओमप्रकाश ठाकुर द्वारा रचित कथा का सम्पादित अंश है । इसमें विद्वान् न्यायाधीश द्वारा एक विचित्र युक्ति से सफलतापूर्वक न्याय किये जाने का प्रेरणास्पद वर्णन हुआ है । इस अंश में रक्षक पुरुष और अभियुक्त दोनों के द्वारा शव लाते समय असली चोर (रक्षक पुरुष) द्वारा वास्तविक तथ्य कहे जाने का रोचक वर्णन हुआ है ।

हिन्दी अनुवाद – (न्यायाधीश का) आदेश पाकर दोनों चल दिये । वहाँ पास जाकर लकड़ी के तख्ते पर रखे हुए एवं कपड़े से ढके हुए शरीर को अपने कन्धे पर ढोते हुए उन दोनों ने न्यायालय की ओर प्रस्थान किया । रक्षक पुरुष (चौकीदार) मजबूत (हृष्ट-पुष्ट) शरीर वाला था, और अभियुक्त अत्यधिक कमजोर शरीर वाला । अत्यधिक भारी शव का कन्धे पर ढोना उसके लिए अत्यन्त कठिन कार्य था । वह भार की पीड़ा से रो रहा था । उसके रोने को सुनकर प्रसन्न रक्षक पुरुष (चौकीदार) उससे बोला- “अरे दुष्ट ! उस दिन तुमने मुझे चोरी की गई सन्दूक (पेटी) को लेने से रोका था । अब अपने किये गये कर्म का फल भोगो । इस चोरी के आरोप में तुम तीन वर्ष का कारावास का दण्ड प्राप्त करोगे ।” ऐसा कहकर वह जोर से हंसने लगा । जिस-किसी प्रकार से दोनों ने शव लाकर एक चौराहे/चबुतरे रख दिया ।

(5)

न्यायाधीशेन पुनस्तौ घटनायाः विषये वक्तुमादिष्टौ । आरक्षिणि निजपक्षं प्रस्तुतवति आश्चर्यमघटत् स शवः प्रावारकमपसार्य न्यायाधीशमभिवाद्य निवेदितवान्- मान्यवर! एतेन आरक्षिणा अध्वनि यदुक्तं तद् वर्णयामि ‘त्वयाऽहं चोरितायाः’ मञ्जूषायाः ग्रहणाद् वारितः, अतः निजकृत्यस्य फलं भुङ्क्ष्व । अस्मिन् चौर्याभियोगे त्वं वर्षत्रयस्य कारादण्डं लप्स्यसे’ इति ।

न्यायाधीश: आरक्षिणे कारादण्डमादिश्य तं जनं ससम्मानं मुक्तवान् ।

अतएवोच्यते – दुष्कराण्यपि कर्माणि मतिवैभवशालिनः ।

नीतिं युक्तिं समालम्ब्य लीलयैव प्रकुर्वते ॥

कठिन शब्दार्थ- वक्तुम = बोलने के लिए (कथयितुम्) । आदिष्टौ = आदेश दिया (आज्ञप्तौ) । प्रस्तुतवति = प्रस्तुत करते समय (उक्तवति) । प्रावारकम् = दुपट्टा, लबादा (उत्तरीयवस्यन्त्रम्) । अपसार्य = दूर करके (अपवार्य)  । अभिवाद्य = अभिवादन करके (अभिवादनं कृत्वा) । अध्वनि = मार्ग में (मार्गे) । यदुक्तम् = जो कहा गया (यत् कथितम्) । मुक्तवान् = छोड़ दिया (अत्यजत्) । लीलयैव खेल-खेल में ही (कौतुकेन) । समालम्ब्य = सहारा देकर (आश्रयं गृहीत्वा) ।

प्रसंग- प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी द्वितीयो भागः’ के ‘विचित्र: साक्षी’ शीर्षक पाठ से उद्धृत किया गया है । यह पाठ श्री ओमप्रकाश ठाकुर द्वारा रचित कथा का सम्पादित अंश है । प्रस्तुत गद्यांश में विद्वान् न्यायाधीश द्वारा एक अत्यन्त कठिन विवाद को विचित्र युक्ति से सुलझाकर वास्तविक अपराधी को दण्ड देने तथा निर्दोषी अभियुक्त को सम्मानपूर्वक मुक्त किये जाने का प्रेरणास्पद वर्णन हुआ है ।

हिन्दी अनुवाद – न्यायाधीश ने फिर से उन दोनों को घटना के विषय में बोलने का आदेश दिया । रक्षक पुरुष (चौकीदार) द्वारा अपना पक्ष प्रस्तुत करते समय आश्चर्यजनक घटना घटित हुई कि उस शव ने दुपट्टा आदि लबादे को दूर करके न्यायाधीश का अभिवादन करके निवेदन किया- हे मान्यवर! इस रक्षक पुरुष (चौकीदार) द्वारा मार्ग में जो कहा गया उसका मैं वर्णन करता हूँ- “तुम्हारे द्वारा मुझे चोरी की गई सन्दूक (पेटी) को लेने से रोका गया था, अतः अब अपने कर्म का फल भोगो । इस चोरी के आरोप में तुम तीन वर्षों का कारावास का दण्ड प्राप्त करोगे ।”

न्यायाधीश ने चौकीदार के लिए कारावास के दण्ड का आदेश देकर उस व्यक्ति को सम्मानपूर्वक मुक्त कर दिया ।

इसीलिए कहा जाता है- बुद्धि से वैभवशाली (बुद्धिमान्) लोग नीतिपूर्ण युक्ति का आश्रय लेकर अत्यन्त कठोर कार्य भी खेल-खेल में ही कर लेते हैं ।

पाठ्यपुस्तकस्य प्रश्नोत्तराणि

प्रश्न 1. एकपदेन उत्तरं लिखत-

(क) कीदृशे प्रदेशे पदयात्रा न सुखावहा ?

(ख) अतिथि: केन प्रबुद्धः ?

(ग) कृशकायः कः आसीत् ?

(घ) न्यायाधीशः कस्मै कारादण्डम् आदिष्टवान् ?

(ङ) कं निकषा मृतशरीरम् आसीत् ?

उत्तराणि – (क) विजने (ख) पादध्वनिना (ग) अभियुक्तः (घ) आरक्षिणे (ङ) राजमार्गम् ।

प्रश्न 2. अधोलिखितानां प्रश्नानाम् उत्तराणि संस्कृतभाषया लिखत (अधोलिखित प्रश्नों के उत्तर संस्कृत भाषा में लिखिए-)

(क) निर्धनः जनः कथं वित्तम् उपार्जितवान् ? (निर्धन व्यक्ति ने किस प्रकार धन कमाया ?)

उत्तरम् – निर्धनः जनः भूरि परिश्रम्य वित्तम् उपार्जितवान् । (निर्धन व्यक्ति ने अत्यधिक परिश्रम करके कमाया ।)

(ख) जनः किमर्थं पदातिः गच्छति ? (व्यक्ति किसलिए पैदल जाता है ?)

उत्तरम् – जनः परमर्थकार्श्येन पीडितः आसीत् अत एव सः पदाति: गच्छति । (व्यक्ति अत्यधिक निर्धनता से पीड़ित था, इसलिए यह पैदल ही जाता है ।)

(ग) प्रसृते निशान्धकारे स किम् अचिन्तयत् ? (रात का अन्धेरा फैलने पर उसने क्या सोचा ?)

उत्तरम् – प्रसृते निशान्धकारे विजने प्रदेशे पदयात्रा न शुभावहा, इति स: अचिन्तयत् । (रात का अन्धेरा फैलने पर एकान्त स्थान में पदयात्रा कल्याणकारी नहीं है, ऐसा उसने सोचा ।)

(घ) वस्तुतः चौरः कः आसीत् ? (वास्तव में चोर कौन था ?)

उत्तरम्- वस्तुतः चौर: ग्रामस्य आरक्षी आसीत् । (वास्तव में चोर गाँव की रक्षा करने वाला (चौकीदार) ही था ।)

(ङ) जनस्य क्रन्दनं निशम्य आरक्षी किमुक्तवान् ? (व्यक्ति का रोना सुनकर चौकीदार क्या बोला ?)

उत्तरम्- आरक्षी उक्तवान् यत्- “त्वयाऽहं चोरितायाः मञ्जूषायाः ग्रहणाद् वारितः, अतः निजकृत्यस्य फलं भुङ्क्ष्व । अस्मिन् चौर्याभियोगे त्वं वर्षत्रयस्य कारादण्डं लप्स्यसे ।” (चौकीदार ने कहा कि- “तुम्हारे द्वारा मुझे चोरी की गई लघु पेटिका (अटैची) को लेने से रोका था, अतः अपने कर्म का फल भोगो । इस चोरी के आरोप में तुम तीन वर्षों की जेल का दण्ड प्राप्त करोगे ।”)

(च) मतिवैभवशालिनः दुष्कराणि कार्याणि कथं साधयन्ति ? (बुद्धिवैभवशाली कठोर कार्यों को भी कैसे सिद्ध कर लेते हैं ?)

उत्तरम् – मतिवैभवशालिनः दुष्कराणि कार्याणि अपि नीतिं युक्किं समालम्ब्य साधयन्ति । (बुद्धिवैभवशाली कठोर कार्यों को भी नीतिपूर्ण युक्ति का आश्रय लेकर सिद्ध कर लेते हैं ।)

प्रश्न 3. रेखाङ्कितपदमाधृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत-

(क) पुत्रं द्रष्टुं सः प्रस्थितः ।

(ख) करुणापरो गृही तस्मै आश्रयं प्रायच्छत् ।

(ग) चौरस्य पादध्वनिना अतिथि: प्रबुद्धः ।

(घ) न्यायाधीशः बंकिमचन्द्रः आसीत् ।

(ङ) स भारवेदनया क्रन्दति स्म ।

(च) उभौ शवं चत्वरे स्थापितवन्तौ ।

उत्तरम् – प्रश्ननिर्माणम्-

(क) कम् द्रष्टुं सः प्रस्थितः ?

(ख) करुणापरो गृही कस्मै आश्रयं प्रायच्छत् ?

(ग) कस्य पादध्वनिना अतिथि: प्रबुद्धः ?

(घ) न्यायाधीशः कः आसीत् ?

(ङ) स कया क्रन्दति स्म ?

(च) उभौ शवं कुत्र स्थापितवन्तौ ?

प्रश्न 4. यथानिर्देशमुत्तरत-

(क) ‘आदेशं प्राप्य उभौ अचलताम्’ अत्र किं कर्तृपदम् ?

उत्तरम्- उभौ ।

(ख) ‘एतेन आरक्षिणा अध्वनि यदुक्तं तत् वर्णयामि’ -अत्र ‘मार्गे’ इत्यर्थे किं पदं प्रयुक्तम् ? उत्तरम्- अध्वनि ।

(ग) ‘करुणापरो गृही तस्मै आश्रयं प्रायच्छत्’ -अत्र ‘तस्मै’ इति सर्वनामपदं कस्मै प्रयुक्तम् ? उत्तरम्- निर्धनजनाय अतिथये ।

(घ) ‘ततोऽसौ तौ अग्रिमे दिने उपस्थातुम आदिष्टवान्’ अस्मिन् वाक्ये किं क्रियापदम् ?

उत्तरम्- आदिष्टवान् ।

(ङ) ‘दुष्कराण्यपि कर्माणि मतिवैभवशालिन:’ -अत्र विशेष्यपदं किम् ?

उत्तरम्- कर्माणि ।

प्रश्न 5. सन्धिं/सन्धिविच्छेदं च कुरुत-

(क) पदातिरेव…………….+……………
(ख) निशान्धकारे…………….+……………
(ग) अभि + आगतम्…………….+……………
(घ) भोजन + अन्ते…………….+……………
(ङ) चौरोऽयम्…………….+……………
(च) गृह + अभ्यन्तरे…………….+……………
(छ) लीलयैव…………….+……………
(ज) यदुक्तम्…………….+……………
(झ) प्रबुद्धः + अतिथिः…………….+……………

उत्तरम्-

(क) पदातिरेवपदातिः + एव
(ख) निशान्धकारेनिशा + अन्धकारे
(ग) अभि + आगतम्अभ्यागतम्
(घ) भोजन + अन्तेभोजनान्ते
(ङ) चौरोऽयम्चौरः + अयम्
(च) गृह + अभ्यन्तरेगृहाभ्यन्तरे
(छ) लीलयैवलीलया + एव
(ज) यदुक्तम्यत् + उक्तम्
(झ) प्रबुद्धः + अतिथिःप्रबुद्धोऽतिथिः

प्रश्न 6. अधोलिखितानि पदानि भिन्न-भिन्नप्रत्ययान्तानि सन्ति । तानि पृथक् कृत्वा निर्दिष्टानां प्रत्ययानामधः लिखत-

परिश्रम्य, उपार्जितवान्, दापयितुम्, प्रस्थितः, द्रष्टुम्, विहाय, पृष्टवान्, प्रविष्टः, आदाय, क्रोशितुम, नियुक्तः, नीतवान्, निर्णेतुम्, आदिष्टवान्, समागत्य, मुदितः ।

उत्तरम्-

ल्यप्क्तक्तवतुतुमुन्
परिश्रम्यप्रस्थितःउपार्जितवान्दापयितुम्
विहायप्रविष्टःपृष्टवान्द्रष्टुम्
आदायनियुक्तःनीतवान्क्रोशितुम्
समागत्यमुदितःआदिष्टवान्निर्णेतुम्

प्रश्न 7. (अ) अधोलिखितानि वाक्यानि बहुवचने परिवर्तयत-

(क) स बसयानं विहाय पदातिरेव गन्तुं निश्चयं कृतवान् ।

(ख) चौरः ग्रामे नियुक्तः राजपुरुषः आसीत् ।

(ग) कश्चन चौरः गृहाभ्यन्तरं प्रविष्टः ।

(घ) अन्येद्युः तो न्यायालये स्व-स्व-पक्षं स्थापितवन्तौ ।

उत्तरम्- (क) ते बसयानं विहाय पदातिरेव गन्तुं निश्चयं कृतवन्तः ।

(ख) चौराः ग्रामे नियुक्ताः राजपुरुषाः आसन् ।

(ग) केचन चौराः गृहाभ्यन्तरं प्रविष्टाः ।

(घ) अन्येद्युः ते न्यायालये स्व-स्व-पक्षं स्थापितवन्तः ।

(आ) कोष्टकेषु दत्तेषु पदेषु यथार्निदिष्टां विभक्तिं प्रयुज्य रिक्तस्थानानि पूरयत-

(क) सः…………….. निष्क्रम्य बहिरागच्छत् । (गृहशब्दे पंचमी)

(ख) गृहस्थः………………. आश्रयं प्रायच्छत् । (अतिथिशब्दे चतुर्थी)

(ग) तौ……………….. प्रति प्रस्थितौ । (न्यायाधिकारिन् शब्दे द्वितीया)

(घ)…………………… चौर्याभियोगे त्वं वर्षत्रयस्य कारादण्डं लप्स्यसे । (इदम् शब्दे सप्तमी)

(ङ) चौरस्य………………. प्रबुद्धः अतिथीः । (पादध्वनिशब्दे तृतीया)

उत्तरम्- (क) सः गृहात् निष्क्रम्य बहिरागच्छत् ।

(ख) गृहस्थः अतिथये आश्रयं प्रायच्छत् ।

(ग) तौ न्यायाधिकारिणं प्रति प्रस्थितौ ।

(घ) अस्मिन् चौर्याभियोगे त्वं वर्षत्रयस्य कारादण्डं लप्स्यसे ।

(ङ) चौरस्य पादध्वनिना प्रबुद्धः अतिथीः ।

भाषिकविस्तारः

उपार्जितवान् – उप + √अर्ज् + तवतु

दापयितुम् – √दा + णिच् + तुमुन्

अदस् (यह) पुँल्लिङ्ग सर्वनाम शब्द

 विभक्तिःएकवचनम्द्विवचनम्बहुवचनम्
प्रथमाअसौअमूअमी
द्वितीयाअमुम्अमूअमून्
तृतीयाअमुनाअमूभ्याम्अमीभिः
चतुर्थीअमुष्मैअमूभ्याम्अमीभ्यः
पंचमीअमुष्मात्अमूभ्याम्अमीभ्यः
पष्ठीअमुष्यअमुयोःअमीषाम्
सप्तमीअमुष्मिन्अमुयोःअमीषु

अध्वन् (मार्ग) नकारान्त पुंल्लिङ्ग

विभक्तिःएकवचनम्द्विवचनम्बहुवचनम्
प्रथमाअध्वाअध्वानौअध्वानः
द्वितीयाअध्वानम्अध्वानौअध्वनः
तृतीयाअध्वनाअध्वभ्याम्अध्वभिः
चतुर्थीअध्वनेअध्वभ्याम्अध्वभ्यः
पंचमीअध्वनःअध्वभ्याम्अध्वभ्यः
पष्ठीअध्वनःअध्वनोःअध्वनाम्
सप्तमीअध्वनिअध्वनोःअध्वसु
सम्बोधनहे अध्वन् !हे अध्वानौ !हे अध्वनः ।

कम् द्रष्टुं सः प्रस्थितः ?

पुत्रं द्रष्टुं सः प्रस्थितः ।

करुणापरो गृही कस्मै आश्रयं प्रायच्छत् ?

करुणापरो गृही तस्मै आश्रयं प्रायच्छत् ।

न्यायाधीशः कः आसीत् ?

न्यायाधीशः बंकिमचन्द्रः आसीत् ।

NCERT class 10th sanskrit chapter 5 जननी तुल्यवत्सला

NCERT Book’s Quiz

Spread the love

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *